Saturday, September 10, 2011

कुरआन की चौबीस आयतें,आर्यसमाज,स्वामी लक्ष्मिशंकाराचार्य

लेखक: स्वामी लक्ष्मिशंकाराचार्य

कुछ लोग कुरआन की 24 आयतों वाला एक पैम्फलेट कई सालों से देश की जनता के बीच बाँट रहे हैं जो भारत की लगभग सभी मुख्य क्षेत्रीय भाषों में छपता है । इस पैम्फलेट का शीर्षक है ' कुरआन की कुछ आयतें जो इमानवालों ( मुसलमानों ) को अन्य धर्मावलम्बियों से झगड़ा करने का आदेश देती हैं । जैसा की किताब की शुरुआत में ' जब मुझे सत्य की ज्ञान हुआ ' में मैंने लिखा है की इसी पर्चे को पढ़ कर मैं भ्रमित हो गया था । यह परचा जैसा छपा है, वैसा ही नीचे दे रहा हूँ :

कुरआन की कुछ आयतें जो इमानवालों ( मुसलमानों ) को अन्य धर्मावलम्बियों से झगड़ा करने का आदेश देती हैं
1 -" फिर, जब हराम के महीने बीत जाएं , तो ' मुशरिकों' को जहाँ कहीं पाओ क़त्ल करो, और पकड़ो , और उन्हें घेरो, और हर घात की जगह उनकी ताक में बैठो । फिर यदि वे 'तौबा ' कर लें नमाज़ क़ायम करें और, ज़कात दें, तो उनका मार्ग छोड़ दो । नि:संदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दया करने वाला है ।"
- ( 10 ,9 ,5 )
2 -" हे ईमान' लेन वालो ! ' मुशरिक' ( मूर्तिपूजक ) नापाक हैं ।"
-( 10 ,9 , 28 )

3 -" नि: संदेह ' काफ़िर ' तुम्हारे खुले दुश्मन हैं ।"
- ( 5 ,4 ,101 )
4 - " हे 'इमान' लाने वालों ! ( मुसलमानों ! ) उन ' काफ़िरों ' से लड़ो जो तुम्हारे आस-पास हैं , और चाहिए कि वे तुममें सखती पायें ।"
- ( 11 ,9 ,123 )
5 - " जिन लोगों ने हमारी 'आयतों ' का इंकार किया, उन्हें हम जल्द अग्नि में झोंक देंगे । जब उनकी खालें पाक जायेंगी तो हम उन्हें दूसरी खालों में बदल देंगे ताकि वे यातना का रसास्वादन कर लें । नि: संदेह अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वदर्शी है । "
- ( 5 , 4 , 56 )
6 - ' हे ' ईमान ' लेन वालो ! ( मुसलमानों ! ) अपने बापों और भाइयों को अपना मित्र मत बनाओ यदि वे ' ईमान ' की अपेक्षा ' कुफ़्र ' को पसंद करें । और तुम में से जो कोई उनसे मित्रता का नाता जोड़ेगा तो ऐसे ही लोग ज़ालिम होंगे ।" - ( 10 , 9 ,23 )
7 - " अल्लाह 'काफ़िर ' लोगों को मार्ग नहीं दिखता ।"
- ( 10 , 9 , 37 )
8 - " हे 'ईमान' लेन वालों ! ------और 'काफ़िरों' को अपना मित्र मत बनाओ । अल्लाह से डरते रहो यदि तुम ईमान वाले हो ।" - ( 6 , 5 , 57 )
9 - " फिट्कारे हुए लोग ( ग़ैरमुस्लिम ) जहाँ कहीं पाये जायेंगे पकड़े जायेंगे और बुरी तरह क़त्ल किये जायेंगे ।" - ( 22 , 23 , 61 )
10 - " ( कहा जायेगा ) : निश्चेय ही तुम और वह जिसे तुम अल्लाह के सिवा पूजते थे ' जहन्नम ' का इंधन हो । तुम अवश्य उसके घाट उतरोगे ।"
- ( 17 , 21 , 98 )

11 - " और उससे बढ़ कर ज़ालिम कौन होगा जिसे उसके ' रब ' की ' आयतों ' के द्वारा चेताया जाये , और फिर वह उनसे मुंह फेर ले । निश्चय ही हमें ऐसे अपराधियों से बदला लेना है ।"
- ( 22 , 32 , 22 , )
12 - ' अल्लाह ने तुमसे बहुत सी ' गनिमतों ' ( लूट ) का वादा किया है जो तुम्हारे हाथ आयेंगी,"
- ( 26 , 48 , 20 )
13 - " तो जो कुछ ' गनीमत ' ( लूट ) का माल तुमने हासिल किया है उसे ' हलाल ' व पाक समझ कर खाओ,"
- ( 10 , 8 , 69 )
14 - ' हे नबी ! ' काफ़िरों ' और ' मुनाफ़िकों ' के साथ जिहाद करो, और उन पर सख्ती करो और उनका ठिकाना ' जहन्नम ' है , और बुरी जगह है जहाँ पहुंचे ।"
- ( 28 , 66 , 9 )
15 " तो अवश्य हम ' कुफ्र ' करने वालों को यातना का मज़ा चखाएंगे, और अवश्य ही हम उन्हें सबसे बुरा बदला देंगे उस कर्म का जो वे करते थे ।"
- ( 24 , 41 , 27 )
16 - " यह बदला है अल्लाह के शत्रुओं का ( ' जहन्नम ' की ) आग । इसी में उनका सदा घर है । इसके बदले में की हमारी ' आयतों ' का इंकार करते थे ।"
- ( 24 , 41 , 28 )17 - " " नि: संदेह अल्लाह ने ' ईमान वालों ( मुसलमानों ) से उनके प्राणों और मालों को इसके बदले में ख़रीद लिया है कि उनके लिये ' जन्नत ' है वे अल्लाह के मार्ग में लड़ते हैं तो मारते भी है और मारे भी जाते हैं ।"
- ( 11 , 9 , 111 )
18 - " अल्लाह ने इन मुनाफ़िक़ ( अर्ध मुस्लिम ) पुरूषों और मुनाफ़िक़ स्त्रियों और ' काफ़िरों ' से ' जहन्नुम ' कि आग का वादा किया है जिसमें वे सदा रहेंगे । यही उन्हें बस है । अल्लाह ने उन्हें लानत की और उनके लिये स्थायी यातना हैं । "
- ( 10 , 9 , 68 )
19 - हे नबी ! ' ईमान वालों ( मुसलमानों ) को लड़ाई पर उभारो । यदि तुम में 20 जमे रहने वाले होंगे तो वे 200 पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे , और यदि तुम में 100 हों तो 1000 ' काफ़िरों ' पर भरी रहेंगे , क्योंकि वे ऐसे लोग हैं जो समझ बूझ नहीं रखते । "
- ( 10 , 8 , 65 )
20 - " हे ईमान वालों ( मुसलमानों ) तुम ' यहूदियों ' और ' ईसाईयों ' को मित्र न बनाओ । ये आपस में एक दूसरे के मित्र हैं । और जो कोई तुम में से उनको मित्र बनायेगा, वह उन्हीं में से होगा । नि: संदेह अल्लाह ज़ुल्म करने वालों को मार्ग नहीं दिखाता । "
- ( 6 , 5 , 51 , )
21 - " किताब वाले " जो न अल्लाह अपर 'ईमान' लाते हैं न अंतिम दिन पर, न उसे ' हराम ' करते जिसे अल्लाह और उसके ' रसूल ' ने हराम ठहराया है, और न सच्चे ' दीन ' को अपना ' दीन ' बनाते हैं , उनसे लड़ो यहाँ तक की वे अप्रतिशिष्ट ( अपमानित ) हो कर अपने हाथों से ' जिज़्या ' देने लगें ।"

- ( 10 , 9 , 29 )22 " ----------- फिर हमनें उनके बीच 'क़ियामत ' के दिन तक के लिए वैमनस्य और द्वेष की आग भड़का दी, और अल्लाह जल्द उन्हें बता देगा जो कुछ वे करते रहे हैं ।"
-( 6 ,5 ,14 )
23 - "
वे चाहते हैं की जिस तरह से वे 'काफ़िर' हुए हैं उसी तरह से तुम भी ' काफ़िर ' हो जाओ , फिर तुम एक जैसे हो जाओ तो उनमें से किसी को अपना साथी न बनाना जब तक वे अल्लाह की राह में हिजरत न करें, और यदि वे इससे फिर जावें तो उन्हें जहाँ कहीं पाओ पकड़ो और उनका ( क़त्ल ) वध करो । और उनमें से किसी को साथी और सहायक मत बनाना ।"
-( 5 , 4 , 89 )
24 - "
उन ( काफ़िरों ) से लड़ो ! अल्लाह तुम्हारे हाथों उन्हें यातना देगा , और उन्हें रुसवा करेगा और उनके मुक़ाबले में तुम्हारी सहायता करेगा , और 'ईमान ' वालों के दिल ठंडे करेगा ।"
-( 10 , 9 , 14 )
उपरोक्त आयतों से स्पष्ट है की इनमें इर्ष्या, द्वेष , घृणा , कपट, लड़ाई-झगडा, लूट-मार और हत्या करने के आदेश मिलते हैं । इन्हीं कारणों से देश व विदेश में मुस्लिमों के बीच दंगे हुआ करते हैं ।
दिल्ली प्रशासन ने सन् 1985 में सर्व श्री इन्द्रसेन शर्मा और राजकुमार आर्य के विरुद्ध दिल्ली के मैट्रोपोलिटन मैजिस्ट्रेट की अदालत में, उक्त पत्रक छापने के आरोप में मुक़द्दमा किया था । न्यायालय ने 31 जुलाई 1986 को उक्त दोनों महानुभावों को बरी करते हुए निर्णय दिया कि:" कुरआन मजीद की पवित्र पुस्तक के प्रति आदर रखते हुए उक्त आयतों के सूक्षम अध्यन से स्पष्ट होता है कि ये आयतें बहुत हानिकारक हैं और घृणा की शिक्षा देती हैं, जिससे मुसलमानों और देश के अन्य वर्गों में भेदभाव को बढ़ावा मिलने की संभावना होती है ।"

हिन्दू रायटर्स फोरम , नयी दिल्ली - 27 द्वारा पुनर्मुद्रित एवं प्रकाशित

ऊपर दिए गए इस पैम्फलेट का सबसे पहले पोस्टर छापा गया था । जिसे श्री इन्द्रसेन शर्मा ( तत्कालीन उप प्रधान, हिन्दू महासभा, दिल्ली ) और श्री राज कुमार आर्य ने छपवाया था । इस पोस्टर में कुरआन मजीद की आयतें, मोहम्मद फारूख खां द्वारा हिंदी अनुवादित तथा मक्तबा अल हसनात रामपुर से 1996 में प्रकाशित कुरआन मजीद से ली गई थीं । यह पोस्टर छपने के कारण इन दोनों लोगों पर इंडियन पेनल कोड की धरा 153 ए और 165 ए के अंतर्गत ( एफ० आइ० आर० 237/83यू0 /एस,235, 1पी०सी० हौज़ क़ाज़ी , पुलिस स्टेशन दिल्ली ) में मुक़द्दमा चला था जिसमें उक्त फ़ैसला हुआ था ।
अब हम देखेंगे की क्या इस पैम्फलेट की यह आयतें वास्तव में विभिन्न वर्गों के बीच घृणा फैलाने व झगड़ा करने वाली हैं ?

पैम्फलेट में लिखी पहले क्रम की आयत है :
1 - '
फिर जब हराम के महीने बीत जाएँ तो " मुशरिकों ' को जहाँ कहीं पाओ क़त्ल करो , और पकड़ो , और उन्हें घेरो , और हर घात की जगह उनकी ताक में बैठो। फिर यदि वे 'तौबा' कर लें नमाज़ क़ायम करें और, ज़कात दें , तो उनका मार्ग छोड़ दो । नि:संदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दया करने वाला है ।"-सूरा 9 आयत-5

इस आयत के सन्दर्भ में-जैसा कि हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) की जीवनी से स्पष्ट है की मक्का में और मदीना जाने के बाद भी मुशरिक काफ़िर कुरैश , अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के पीछे पड़े थे । वह आप को सत्य-धर्म इस्लाम को समाप्त करने के लिए हर संभव कोशिश करते रहते । काफ़िर कुरैश ने अल्लाह के रसूल को कभी चैन से बैठने नहीं दिया । वह उनको सदैव सताते ही रहे । इसके लिए वह सदैव लड़ाई की साजिश रचते रहते ।
अल्लाह के रसूल ( सल्ल०) के हिजरत के छटवें साल ज़ीक़दा महीने में आप ( सल्ल० ) सैंकड़ों मुसलमानों के साथ हज के लिए मदीना से मक्का रवाना हुए । लेकिन मुनाफिकों ( यानि कपटचारियों ) ने इसकी ख़बर क़ुरैश को दे दी । क़ुरैश पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) को घेरने का कोई मौक़ा हाथ से जाने न देते । इस बार भी वह घात लगाकर रस्ते में बैठ गये । इसकी ख़बर आप ( सल्ल० ) को लग गई । आपने रास्ता बदल दिया और मक्का के पास हुदैबिया कुँए के पास पड़ाव डाला । कुँए के नाम पर इस जगह का नाम हुदैबिया था ।
जब क़ुरैश को पता चला कि मुहम्मद अपने अनुयायी मुसलमानों के साथ मक्का के पास पहुँच चुके हैं और हुदैबिया पर पड़ाव डाले हुए हैं , तो काफ़िरों ने कुछ लोगों को आप की हत्या के लिए हुदैबिया भेजा, लेकिन वे सब हमले से पहले ही मुसलमानों द्वारा पकड़ लिए गये और अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के सामने लाये गये । लेकिन आपने उन्हें ग़लती का एहसास कराकर माफ़ कर दिया ।
उसके बाद लड़ाई-झगड़ा, खून-ख़राबा टालने के लिए हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) को क़ुरैश से बात करने के लिए भेजा । लेकिन क़ुरैश ने हज़रत उस्मान ( रज़ि०) को क़ैद कर लिया । उधर हुदैबिया में पड़ाव डाले अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) को ख़बर लगी कि हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) क़त्ल कर दिए गये । यह सुनते ही मुस्लमान हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) के क़त्ल का बदला लेने के लिये तैयारी करने लगे ।
जब क़ुरैश को पता चला कि मुस्लमान अब मरने-मारने को तैयार हैं और अब युद्ध निश्चित है तो बातचीत के लिये सुहैल बिन अम्र को हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) के पास हुदैबिया भेजा । सुहैल से मालूम हुआ कि उस्मान ( रज़ि० ) का क़त्ल नहीं हुआ वह क़ुरैश कि क़ैद में हैं । सुहैल ने हज़रत उस्मान ( रज़ि० ) को क़ैद से आज़ाद करने व युद्ध टालने के लिये कुछ शातें पेश कीं ।
[
पहली शर्त थी- इस साल आप सब बिना हज किये लौट जाएँ । अगले साल आएं लेकिन तीन दिन बाद चले जाएँ ।
[
दूसरी शर्त थी- हम क़ुरैश का कोई आदमी मुस्लमान बन कर यदि आए तो उसे हमें वापस किया जाये । लेकिन यदि कोई मुस्लमान मदीना छोड़कर मक्का में आ जाए, तो हम वापस नहीं करेंगे ।
[
तीसरी शर्त थी- कोई भी क़बीला अपनी मर्ज़ी से क़ुरैश के साथ या मुसलमानों के साथ शामिल हो सकता है ।
[
समझौते में चौथी शर्त थी- कि:- इन शर्तों को मानने के बाद क़ुरैश औए मुसलमान न एक दुसरे पर हमला करेंगे और न ही एक दुसरे के सहयोगी क़बीलों पर हमला करेंगे । यह समझौता 10 साल के लिए हुआ , हुबैदिया समझौते के नाम से जाना जाता है ।
हालाँकि यह शर्तें एक तरफ़ा और अन्यायपूर्ण थीं, फिर भी शांति और सब्र के दूत मुहम्मद ( सल्ल० ) ने इन्हें स्वीकार कर लिया , जिससे शांति स्थापित हो सके ।
लेकिन समझौता होने के दो ही साल बाद बनू-बक्र नामक क़बीले ने जो मक्का के क़ुरैश का सहयोगी था, मुसलमानों के सहयोगी क़बीले खुज़ाआ पर हमला कर दिया । इस हमले में क़ुरैश ने बनू-बक्र क़बीले का साथ दिया ।
खुज़ाआ क़बीले के लोग भाग कर हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) के पास पहुंचे और इस हमले कि ख़बर दी । पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल०) ने शांति के लिए इतना झुक कर समझौता किया था । इसके बाद भी क़ुरैश ने धोखा देकर समझौता तोड़ डाला ।
अब युद्ध एक आवश्यकता थी , धोखा देने वालों को दण्डित करना शांति कि स्थापना के लिए ज़रूरी था । इसी ज़रुरत को देखते हुए अल्लाह कि ओर से सूरा 9 की आयत नाज़िल हुई ।
इनके नाज़िल होने पर नबी ( सल्ल० ) ने सूरा 9 की आयतें सुनाने के लिए हज़रत ( रज़ि० ) को मुशरिकों के पास भेजा । हज़रत अली ( रज़ि० ) ने जाकर मुशरिकों से यह कहते हुए किमुसलमानों के लिए अल्लाह का फ़रमान आ चुका है उन को सूरा 9 की यह आयत सुना दी-
(
ऐ मुसलमानों ! अब ) ख़ुदा और उसके रसूल की तरफ़ से मुशरिकों से, जिन तुम ने अह्द ( यानि समझौता ) कर रखा था, बे-ज़ारी ( और जंग की तैयारी ) है । (1 )
तो ( मुशरिको ! तुम ) ज़मीन में चार महीने चल फिर लो और जान रखो कि तुम को आजिज़ न कर सकोगे और यह भी कि ख़ुदा काफ़िरों को रुसवा करने वाला है । ( 2 )
और हज्जे-अकबर के दिन ख़ुदा और उसके रसूल कि तरफ़ से आगाह किया जाता है कि ख़ुदा मुशरिकों से बेज़ार है और उसका रसूल भी ( उन से दस्तबरदार है ) । पस अगर तुम तौबा कर लो , तो तुम्हारे हक़ में बेहतर है और न मानो ( और ख़ुदा से मुक़ाबला करो ) तो जान रखो कि तुम ख़ुदा को हरा नहीं सकोगे और ( ऐ पैग़म्बर ! ) काफ़िरों को दु:ख देने वाले अज़ाब कि ख़बर सुना दो । ( 3 )
-
कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत- 1 ,2 ,3 ,
अली ने मुशरिकों से कह दिया कि " यह अल्लाह का फ़रमान है अब समझैता टूट चुका है और यह तुम्हारे द्वारा तोड़ा गया है इसलिये अब इज़्ज़त के चार महीने बीतने के बाद तुम से जंग ( यानि युद्ध ) है ।
"
समझौता तोड़ कर हमला करने वालों पर जवाबी हमला कर उन्हें कुचल देना मुसलमानों का हक़ बनता था, वह भी मक्के के उन मुशरिकों के विरुद्ध जो मुसलमानों के लिए सदैव से अत्याचारी व आक्रमणकारी थे । इसलिये सर्वोच्च न्यायकर्ता अल्लाह ने पांचवीं आयत का फ़रमान भेजा ।
इस पांचवी आयत से पहले वाली चौथी आयत " अल-बत्ता, जिन मुशरिकों के साथ तुम ने अह्द किया हो, और उन्होंने तुम्हारा किसी तरह का क़ुसूर न किया हो और न तुम्हारे मुक़ाबले में किसी कि मदद की हो, तो जिस मुद्दत तक उसके साथ अह्द किया हो , उसे पूरा करो ( कि ) ख़ुदा परहेज़गारों को दोस्त रखता है ।"
-
कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत-4
से स्पष्ट है कि जंग का यह एलान उन मुशरिकों के विरुद्ध था जिन्होनें युद्ध के लिए उकसाया, मजबूर किया, उन मुशरिकों के विरुद्ध नहीं जिन्होनें ऐसा नहीं किया । युद्ध का यह एलान आत्मरक्षा व धर्मरक्षा के लिए था ।
अत: अन्यायियों , अत्याचारियों द्वारा ज़बदस्ती थोपे गये युद्ध से अपने बचाव के लिए किये जाने वाला नहीं कहा जा सकता ।अत्याचारियों और अन्यायियों से अपनी व धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करना और युद्ध के लिए सैनिकों को उत्साहित करना धर्म सम्मत है
इस पर्चे को छापने व बाँटने वाले लोग क्या यह नहीं जानते कि अत्याचारियों और अन्यायियों के विनाश के लिए ही योगेश्वर श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था । क्या यह उपदेश लड़ाई-झगड़ा करने वाला या घृणा फैलाने वाला है? यदि नहीं, तो फिर कुरआन के लिए ऐसा क्यों कहा जाता है?
फिर यह सूरा उस समय मक्का के अत्याचारी मुशरिकों के विरुद्ध उतारी गयी । जो अल्लाह के रसूल के ही भाई-बन्धु क़ुरैश थे । फिर इसे आज के सन्दर्भ में और हिन्दुओं के लिए क्यों लिया जा रहा है ? क्या हिन्दुओं व अन्य ग़ैरमुस्लिमों को उकसाने और उनके मन में मुसलमानों के लिए घृणा भरने तथा इस्लाम को बदनाम करने की घृणित साज़िश नहीं है?
पैम्फलेट में लिखी दुसरे क्रम की आयत है:

2 - " हे 'ईमान' लाने वालों ! 'मुशरिकों' ( मूर्तिपूजक ) नापाक हैं ।"
-
सूरा 9 , आयत- 28
लगातार झगड़ा-फ़साद, अन्याय-अत्याचार करने वाले अन्यायी , अत्याचारी अपवित्र नहीं, तो और क्या हैं ?

पैम्फलेट में लिखी तीसरी क्रम की आयत है:

3 - " नि:संदेह ' काफ़िर' तुम्हारे खुले दुश्मन हैं "
-
सूरा 4 , आयत-101
वास्तव में जान-बूझ कर इस आयत का एक अंश ही दिया गया है । पूरी आयात ध्यान से पढ़ें- " और जब तुम सफ़र को जाओ, तो तुम पर कुछ गुनाह नहीं कि नमाज़ को कम पढो, बशर्ते कि तुमको

डर हो कि काफ़िर लोग तुमको ईज़ा ( तकलीफ़ ) देंगे । बेशक काफ़िर तुम्हारे खुले दुश्मन हैं ।"
-कुरआन, पारा 5 , सूरा 4 , आयत-101
इस पूरी आयात से स्पष्ट है कि मक्का व आस-पास के काफ़िर जो मुसलमानों को सदैव नुक़सान पहुँचाना चाहते थे ( देखिए हज़रत मुहम्मद सल्ल० की जीवनी ) । ऐसे दुश्मन काफ़िरों से सावधान रहने के लिए ही इस 101 वीं आयात में कहा गया है :- 'कि नि:संदेह ' काफ़िर ' तुम्हारे खुले दुश्मन हैं ।'
इससे अगली 102 वीं आयात से स्पष्ट हो जाता है जिसमें अल्लाह ने और सावधान रहने का फ़रमान दिया है कि :
और ( ऐ पैग़म्बर ! ) जब तुम उन ( मुजाहिदों के लश्कर ) में हो और उनके नमाज़ पढ़ाने लगो, तो चाहिए कि एक जमाअत तुम्हारे साथ हथियारों से लैस होकर खड़ी रहे, जब वे सज्दा कर चुकें, तो परे हो जाएँ , फिर दूसरी जमाअत , जिसने नमाज़ नहीं पढ़ी ( उनकी जगह आये और होशियार और हथियारों से लैस होकर ) तुम्हारे साथ नमाज़ अदा करे । काफ़िर इस घात में हैं कि तुम ज़रा अपने हथियारों और अपने सामानों से गाफ़िल हो जाओ, तो तुम पर एक बारगी हमला कर दें ।
-
कुरआन, पारा 5 , सूरा 4 , आयत-102

पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल०) कि जीवनी व ऊपर लिखे तथ्यों से स्पष्ट है कि मुसलमानों के लिए काफ़िरों से अपनी व अपने धर्म कि रक्षा करने के लिए ऐसा करना आवश्यक था । अत: इस आयत में झगड़ा करने, घृणा फैलाने या कपट करने जैसी कोई बात नहीं है, जैसा कि पैम्फलेट में लिखा गया है । जबकि जान-बूझ कर कपटपूर्ण ढंग से आयात का मतलब बदलने के लिये आयत के केवल एक अंश को लिख कर और शेष छिपा कर जनता को वरगालाने , घृणा फैलाने व झगड़ा करने का कार्य तो वे लोग कर रहे हैं, जो इसे छापने व पूरे देश में बाँटने का कार्य कर रहे हैं ।जनता ऐसे लोगों से सावधान रहे ।

में लिखी चौथे क्रम कि आयत है :

4 - "हे 'ईमान' लेन वालों ! ( मुसलमानों !) उन 'काफ़िरों' से लड़ो जो तुम्हार आस-पास हैं, और चाहिये कि वे तुममें सख्ती पायें ।"
-
सूरा 9 , आयत-123
पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) कि जीवनी व ऊपर लिखे जा चुके तथ्यों से स्पष्ट है कि मुसलमानों को काफ़िरों से अपनी व अपने धर्म कि रक्षा करने के लिये ऐसा करना आवश्यक था । इसलिए इस आत्मरक्षा वाली आयात को झगड़ा करने वाली नहीं कहा जा सकता ।

पैम्फलेट में लिखी 5वें क्रम कि आयत है :

5 - ; जिन लोगों ने हमारी ' आयतों ' का इंकार किया , उन्हें हम जल्द ही अग्नि में झोंक देंगे । जब उनकी खालें पक जायेंगी तो हम उन्हें दूसरी खालों से बदल देंगे ताकि वे यातना का रसास्वादन कर लें । नि:संदेह अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वदर्शी है । "
-
सूरा 5 , आयत-56
यह तो धर्म विरुद्ध जाने पर दोज़ख़ ( यानि नरक ) में दिया जाने वाला दंड है । सभी धर्मों में उस धर्म की मान्यताओं के अनुसार चलने पर स्वर्ग का अकल्पनीय सुख और विरुद्ध जाने पर नरक का भयानक दंड है । फिर कुरआन में बताये गए नरक ( यानि दोज़ख़ ) के दंड के लिये एतराज़ क्यों? इस मामले में इन पर्चा छापने व बाँटने वालों को हस्तक्षेप करने का क्या अधिकार है?
या फिर क्या इन लोगों को नरक में मानवाधिकारों की चिंता सताने लगी है ?

पैम्फलेट में लिखी 6वें क्रम की आयत है :

6 - '"हे 'ईमान' लेन वालों ! ( मुसलमानों ) अपने बापों और भाइयों को मित्र न बनाओ यदि वे ' ईमान ' की अपेक्षा ' कुफ्र' को पसंद करें । और तुम में जो कोई उनसे मित्रता का नाता जोड़ेगा, तो ऐसे ही लोग ज़ालिम होंगे ।"
-
सूरा 9 ' आयत-23
पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) जब एकेश्वरवाद का सन्देश दे रहे थे, तब कोई व्यक्ति अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) द्वारा तौहीद ( यानि एकेश्वरवाद ) के पैग़ाम पर ईमान ( यानि विश्वास ) लाकर मुसलमान बनता और फिर अपने मां-बाप, बहन-भाई के पास जाता, तो वे एकेश्वरवाद से उसका विश्वास ख़त्म कराके फिर से बहुईश्वरवादी बना देते । इस कारण एकेश्वरवाद की रक्षा के लिये अल्लाह ने यह आयात उतारी जिससे एकेश्वरवाद के सत्य को दबाया न जा सके । अत: सत्य की रक्षा के लिये आई इस आयत को झगड़ा करने वाली या घृणा फैलाने वाली आयत कैसे कहा जा सकता है ? जो ऐसा कहते हैं वे अज्ञानी हैं ।

पैम्फलेट में लिखी 7वें क्रम की आयत है :

7 - " अल्लाह ' काफ़िरों' लोगों को मार्ग नहीं दिखता ।"
-
सूरा 9 , आयत-37
आयात का मतलब बदलने के लिये इस आयत को भी जान-बूझ कर पूरा नहीं दिया गया, इसलिए इसका सही मकसद समझ में नहीं आता । इसे समझने के लिये हम आयात को पूरा दे रहे हैं ।:
अम्न के किसी महीने को हटाकर आगे-पीछे कर देना कुफ्र में बढ़ती करता है । इस से काफ़िर गुमराही में पड़े रहते हैं । एक साल तो उसको हलाल समझ लेते हैं और दूसरे साल हराम, ताकि अदब के महीनों की, जो खुदा ने मुक़र्रर किये हैं, गिनती पूरी कर लें और जो खुदा ने मना किया है , उसको जायज़ कर लें । उनके बुरे अमल उन को भले दिखाई देते हैं और अल्लाह काफ़िर लोगों को मार्ग नहीं दिखता ।
-
कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत- 37
अदब या अम्न ( यानि शांति ) के चार महीने होते हैं, वे हैं - ज़ीकादा, ज़िल्हिज्जा, मुहर्रम,और रजब । इन चार महीनों में लड़ाई-झगड़ा नहीं किया जाता । काफ़िर कुरैश इन महीनों में से किसी महीने को अपनी ज़रुरत के हिसाब से जान-बूझ कर आगे-पीछे कर लड़ाई-झगड़ा करने के लिये मान्यता का उल्लंघन किया करते थे । अनजाने में भटके हुए को मार्ग दिखाया जा सकता है , लेकिन जानबूझ कर भटके हुए को मार्ग इश्वर भी नहीं दिखाता । इसी सन्दर्भ में यह आयात उतरी । इस आयत का लड़ाई-झगड़ा करने या घृणा फैलाने से कोई सम्बन्ध नहीं है ।

पैम्फलेट में लिखी 8वें क्रम की आयत है :

8 - " हे 'ईमान' लाने वालों ! ------------ और 'काफ़िरों' को अपना मित्र न बनाओ । अल्लाह से डरते रहो यदि तुम ईमान वाले हो । "
यह आयात भी अधूरी दी गयी है । आयात के बीच का अंश जान बूझ कर छिपाने की शरारत की गयी है । पूरी आयात है -
ऐ ईमान लाने वालों ! जिन लोगों को तुमसे पहले किताबें दी गयी थीं, उन को और काफ़िरों को जिन्होंने तुम्हारे धर्म को हंसी और खेल बना रखा है, मित्र न बनाओ और अल्लाह से डरते रहो यदि तुम ईमान वाले हो ।
-
कुरआन, पारा 6 , सूरा 5 , आयत-57 आयत को पढ़ने से साफ़ है कि काफ़िर क़ुरैश तथा उन के सहयोगी यहूदी और ईसाई जो मुसलमानों के धर्म की हंसी उड़ाया करते थे , उन को दोस्त न बनाने के लिए यह आयात आई । ये लड़ाई-झगड़े के लिए उकसाने वाली या घृणा फैलाने वाली कहाँ से है ? इसके विपरीत पाठक स्वयं देखें की पैम्फलेट में ' जिन्होंने तुम्हारे धर्म को हंसी और खेल बना रखा है' को जानबूझ कर छिपा कर उसका मतलब पूरी तरह बदल देने की साजिश करने वाले क्या चाहते हैं?

पैम्फलेट में लिखी 9वें क्रम कि आयत है:

9 -" फिटकारे हुए ( ग़ैर मुस्लिम ) जहाँ कहीं पाये जायेंगे पकडे जायेंगे और बुरी तरह क़त्ल किये जायेंगे "
-
सूरा 33 ,आयत-61
इस आयात का सही मतलब तभी पता चलता है जब इसके पहली वाली 60वीं आयत को जोड़ा जाये ।
अगर मुनाफ़िक ( यानि कपटचारी ) और वे बुरे लोग जिनके दिलों में मर्ज़ है और जो mado ( के शहर ) में बुरी-बुरी ख़बरें उड़ाया करते हैं, ( अपने किरदार से ) रुकेंगे नहीं, तो हम तुम को उनके पीछे लगा देंगे , फिर वहां तुम्हारे पड़ोस में न रह सकेंगे, मगर थोड़े दिन । ( 60 )
(
वह भी फिटकारे हुए ) जहाँ पाये गए, पकडे गए और जान से मार डाले गए । ( 61 )
-
कुरआन , पारा 22 , सूरा 33 , आयत- 60 -61
उस समय मदीना शहर जहाँ अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) का निवास था, कुरैश के हमले का सदैव अंदेशा रहता था । युद्ध जैसे माहौल में कुछ मुनाफिक ( यानि कपटचारी ) और यहूदी तथा ईसाई जो मुसलामनों के पास भी आते और काफ़िर क़ुरैश से भी मिलते रहते और

अफहवाहें उड़ाया करते थे। युद्ध जैसे माहौल में जहाँ हमले का सदैव अंदेशा हो, अफवाह उड़ाने वाले जासूस कितने ख़तरनाक हो सकते हैं, अंदाज़ा किया जा सकता है । आज क़ानून में भी ऐसे लोगों की सज़ा मौत हो सकती है । वास्तव में शांति की स्थापना के लिए उनको यही दण्ड उचित है । यह न्यायसंगत है । अत: इस आयत को झगड़ा करने वाली कहना दुर्भाग्यपूर्ण है ।

पैम्फलेट में लिखी 10वें क्रम की आयत है :

10 - " ( कहा जायगा ) : निश्चय ही तुम और वह जिसे तुम अल्लाह के सिवा पूजते थे ' जहन्नम ' का ईधन हो । तुम अवश्य उसके घाट उतरोगे ।
-सूरा 21 , आयात-98
इस्लाम एकेश्वरवादी मज़हब है, जिसके अनुसार एक इश्वर ' अल्लाह ' के अलावा किसी दूसरे को पूजना सबसे बड़ा पाप है । इस आयात में इसी पाप के लिए अल्लाह मरने के बाद जहन्नम ( यानि नरक ) का दण्ड देगा ।
पैम्फलेट में लिखी पांचवें क्रम की आयत में हम इस विषय में लिख चुके हैं अत: इस आयत को भी झगड़ा करने वाली आयत कहना न्यायसंगत नहीं है ।

पैम्फलेट में लिखी 11वें क्रम की आयत है :

11- '
और उससे बढ़कर ज़ालिम कौन होगा किसे उसके ' रब ' की ' आयातों ' के द्वारा चेताया जाये, और फिर वह उनसे मुंह फेर ले । निश्चय ही हमें ऐसे अपराधियों से बदला लेना है ।"
-सूरा 32, आयत- 22

इस आयत में भी पहले लिखी आयत की ही तरह अल्लाह

उन लोगों को नरक का दण्ड देगा जो अल्लाह की आयतों को नहीं मानते । यह परलोक की बातें है अत: इस आयत
का सम्बन्ध इस लोक में लड़ाई-झगड़ा कराने या घृणा फैलाने से जोड़ना शरारत पूर्ण हरकत है।

पैम्फलेट में लिखी 12वें क्रम की आयत है :

12 - " अल्लाह ने तुमसे बहुत सी ' गनिमतों ' ( लूट ) का वादा किया है जो तुम्हारे हाथ आएँगी,"
-सूरा 48 ,आयत-20
पहले में यह बता दूं कि ग़नीमत का अर्थ लूट नहीं बल्कि शत्रु की क़ब्ज़ा की गई संपत्ति होता है । उस समय मुसलमानों के अस्तित्व को मिटने के लिए हमले होते या हमले की तैयारी हो रही होती । काफ़िर और उनके सहयोगी यहूदी व ईसाई धन से शक्तिशाली थे । ऐसे शक्तिशाली दुश्मनों से बचाव के लिए उनके विरुद्ध मुसलमनों का हौसला बढ़ाये रखने के लिए अल्लाह की ओर से वायदा हुआ ।
यह युद्ध के नियमों के अनुसार जायज़ है । आज शत्रु की क़ब्ज़ा की गई संपत्ति विजेता की होती है ।
अत: इसे झगड़ा कराने वाली आयत कहना दुर्भाग्यपूर्ण है ।

पैम्फलेट में लिखी 13वें क्रम की आयत है :

13 - " तो जो कुछ ' ग़नीमत ' ( लूट ) का माल तुमने हासिल किया है उसे ' हलाल ' व पाक समझ कर खाओ ,"
- सूरा 8 , आयत -69

बारहवें क्रम की आयत में दिए हुए तर्क के अनुसार इस आयात का भी सम्बन्ध आत्मरक्षा के लिए किये जाने वाले युद्ध में मिली चल संपत्ति से है, युद्ध में हौसला बनाये रखने से है । इसे भी झगड़ा बढ़ाने

वाली आयत कहना दुर्भाग्यपूर्ण है ।

पैम्फलेट में लिखी 14वें क्रम की आयत है :

14 - " हे नबी ! ' काफ़िरों 'और ' मुनाफ़िकों ' के साथ जिहाद करो , और उन पर सख्ती करो और उनका ठिकाना ' जहन्नम ' है, और बुरी जगह है जहाँ पहुंचे ।"
जैसे कि हम ऊपर बता चुके हैं कि काफ़िर कुरैश अन्यायी व अत्याचारी थे और मुनाफ़िक़ ( यानि कपट करने वाले कपटचारी ) मुसलमानों के हमदर्द बन कर आते, उनकी जासूसी करते और काफ़िर कुरैश को सारी सूचना पहुंचाते तथा काफ़िरों के साथ मिल कर अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) कि खिल्ली उड़ाते और मुसलमानों के खिलाफ़ साजिश रचते । ऐसे अधर्मियों के विरुद्ध लड़ना अधर्म को समाप्त कर धर्म की स्थापना करना है । ऐसे ही अत्याचारी कौरवों के लिए योगेश्वर श्री कृष्णन ने कहा था:
अथ चेत् त्वामिमं धमर्य संग्रामं न करिष्यसि ।
तत: स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्य्सी ।।
-गीता अध्याय 2 श्लोक-33
हे अर्जुन ! किन्तु यदि तू इस धर्म युक्त युद्ध को न करेगा तो अपने धर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धं ।
- अध्याय 11 , श्लोक-33

इसलिए तू उठ ! शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर, यश को प्राप्त कर धन-धान्य से संपन्न राज्य का भोग कर ।

पोस्टर या छापने व बाँटने वाले श्रीमद् भगवद् गीता के इस आदेश को क्या झगड़ा- लड़ाई कराने वाला कहेंगे ? यदि नहीं, तो इन्हीं परिस्थतियों में आत्मरक्षा के लिए अत्याचारियों के विरुद्ध जिहाद ( यानि आत्मरक्षा व धर्मरक्षा के लिए युद्ध ) करने का फ़रमान देने वाली आयत को झगड़ा कराने वाली कैसे कह सकते हैं? क्या यह अन्यायपूर्ण निति नहीं है ? आखिर किस उद्देश्य से यह सब किया जा रहा है ?

पैम्फलेट में लिखी 15वें क्रम की आयत है :

15 - " तो अवश्य हम ' कुफ्र ' करने वालों को यातना का मज़ा चखायेंगे, और अवश्य ही हम उन्हें सबसे बुरा बदला देंगे उस कर्म का जो वो करते थे ।"
-सूरा 41 , आयत-27
उस आयत को लिखा जिसमें अल्लाह काफ़िरों को दण्डित करेगा, लेकिन यह दण्ड क्यों मिलेगा ? इसकी वजह इस आयत के ठक पहले वाली आयत ( जिस की यह पूरक आयत है ) में है, उसे ये छिपा गए । अब इन आयतों को हम एक साथ दे रहे हैं । पाठक स्वयं देखें कि इस्लाम को बदनाम करने कि साजिश कैसे रची गई है ? :
और काफ़िर कहने लगे कि इस कुरआन को सुना ही न करो और ( जब पढने लगें तो ) शोर मचा दिया करो , ताकि ग़ालिब रहो । ( 26 )
तो अवश्य हम ' कुफ्र ' करने वालों को यातना का मज़ा चखायेंगे, और अवश्य ही हम उन्हें सबसे बुरा बदला देंगे उस कर्म का जो वे करते थे । ( 27 )
- कुरआन , पारा 24 , सूरा 41, आयत- 26 -27

अब यदि कोई अपनी धार्मिक पुस्तक का पाठ करने लगे या नमाज़ पढने लगे, तो उस समय बाधा पहुँचाने के लिए शोर मचा देना

क्या दुष्टतापूर्ण कर्म नहीं है? इस बुरे कर्म कि सज़ा देने के लिये ईश्वर कहता है, तो क्या वह झगड़ा कराता है?
मेरी समझ में नहीं आ रहा कि पाप कर्मों का फल देने वाली इस आयत में झगड़ा कराना कैसे दिखाई दिया ?

पैम्फलेट में लिखी 16वें क्रम की आयत है :

16 - " यह बदला है अल्लाह के शत्रुओं का ( 'जहन्नम' की ) आग । इसी में उनका सदा घर है , इसके बदले में कि हमारी ' आयातों ' का इंकार करते थे ।"
-सूरा 41 , आयत- 28
यह आयत ऊपर पन्द्रहवें क्रम कि आयात की पूरक है जिसमें काफ़िरों को मरने के बाद नरक का दण्ड है, जो परलोक की बात है इसका इस लोक में लड़ाई-झगड़ा कराने या घृणा फैलाने से कोई सम्बन्ध नहीं है ।

पैम्फलेट में लिखी 17वें क्रम की आयत है :

17- " नि:संदेह अल्लाह ने ' ईमान' वालों ( मुसलमानों ) से उनके प्राणों और मालों को इसके बदले में ख़रीद लिया है कि उनके लिये ' जन्नत' है, वे अल्लाह के मार्ग में लड़ते हैं तो मारते भी हैं और मारे भी जाते हैं ।"
-सूरा 9 , आयत-11
गीता में है ;
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्स्ये महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय: ।।

-गीता अध्याय 2 श्लोक-37

या ( तो तू युद्ध में ) मारा जा कर स्वर्ग को प्राप्त होगा ( अथवा ) जीत कर , पृथ्वी का राज्य भोगेगा । इसलिए हे अर्जुन ! ( तू ) युद्ध के लिए निश्चय कर क्र खड़ा हो जा ।
गीता के यह आदेश लड़ाई-झगड़ा बढ़ने वाला भी नहीं है , यह अधर्म को बढ़ने वाला भी नहीं है , क्योंकि यह तो अन्यायियों व अत्याचारियों का विनाश कर धर्म की स्थापना के लिए किये जाने वाले युद्ध के लिए है ।
इन्हीं परिस्थितियों में अन्यायी , अत्याचारी, मुशरिक काफ़िरों को समाप्त करने के लिए ठीक वैसा ही अल्लाह ( यानि परमेश्वर ) का फरमान भी सत्य धर्म की स्थापना के लिये है , आत्मरक्षा के लिए है। फिर इसे ही झगड़ा करने वाला क्यों कहा गया ? ऐसा कहने वाले क्या अन्यायपूर्ण निति नहीं रखते ? जनता को ऐसे लोगों से सावधान हो जाना चाहिए ।

पैम्फलेट में लिखी 18वें क्रम की आयत है :


18 - " अल्लाह ने इन मुनाफ़िक़ ( अर्ध मुस्लिम ) पुरुषों और मुनाफ़िक स्त्रियों और ' काफिरों ' से जहन्नुम ' की आग का वादा किया है जिसमें वह सदा रहेंगे । यही उन्हें बस है । अल्लाह ने उन्हें लानत की और उनके लिये स्थायी यातना है।"
-कुरआन, पारा 10 ,सूरा 9 ,आयात-68
सूरा 9 की इस 68वीं आयत के पहले वाली 67वीं आयत को पढने के बाद इस आयत को पढ़ें, पहले वाली 67वीं आयत है ।

मुनाफ़िक मर्द और मुनाफ़िक़ औरतें एक दुसरे के हमजिंस ( यानि एक ही तरह के ) हैं, कि बुरे काम करने को कहते और नेक कामों से मना करते और ( खर्च करने में ) हाथ बंद किये रहते हैं, उन्होंने ख़ुदा को भुला दिया तो खुदा ने भी उनको भुला दिया । बेशक मुनाफ़िक

-फ़रमान है ।
-
कुरआन, पारा 10 , सूरा 9 , आयत-67
स्पष्ट है मुनाफ़िक़ ( कपटचारी ) मर्द और औरतें लोगों को अच्छे कामों से रोकते और बुरे काम करने को कहते । अच्छे काम के लिए खोटा सिक्का भी न देते । खुदा ( यानि परमीश्वर ) को कभी याद करते , उसकी अवज्ञा करते और खुराफ़ात में लगे रहते । ऐसे पापियों को मरने के बाद क़ियामत के दिन जहन्नम ( यानि नरक ) की सज़ा की चेतावनी देने वाली अल्लाह की यह आयात बुरे पर अच्छाई की जीत के लिए उतरी की लड़ाई-झगड़ा करने के लिए ।

पैम्फलेट में लिखी 19वें क्रम की आयत है :

19 - " हे नबी ! ' ईमान ' वालों ( मुसलमानों ) को लड़ाई पर उभारो । यदि तुम 20 जमे रहने वाले होंगे तो वे 200 पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे , और यदि तुम में 100 हों तो 1000 ' काफ़िरों ' पर भारी रहेंगे , क्योंकि वे ऐसे लोग हैं जो समझ बूझ नहीं रखते
-
सूरा 8 , आयत-65

मक्का के अत्याचारी क़ुरैश अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के बीच होने वाले युद्ध में क़ुरैश की संख्या अधिक होती और सत्य के रक्षक मुसलमानों की कम । ऐसी हालात में मुसलमानों का हौसला बढ़ाने उन्हें युद्ध में जमाये रखने के लिए अल्लाह की ओर से यह आयत उतरी । यह युद्ध अत्याचारी व आक्रमणकारी काफ़िरों से था कि सभी काफ़िरों या ग़ैर-मुसलमानों से । अत: यह आयात अन्य धर्मावलम्बियों से झगड़ा करने का आदेश नहीं देती । इसके प्रमाण में एक आयत दे रहे हैं । :
जिन लोगों ( यानि काफ़िरों ) ने तुमसे दीन के बारे में जंग नहीं की और तुम को तुम्हारे घरों से निकाला, उनके साथ भलाई और इंसाफ़ का सुलूक करने से ख़ुदा तुमको मना नहीं करता ख़ुदा इंसाफ करने वालों को दोस्त रखता है
-
कुरआन, पारा 28 , सूरा 60 , आयत-8

पैम्फलेट में लिखी 20वें क्रम की आयत है :

20 - " हे ईमान वालों ( मुसलमानों ) तुम 'यहूदियों' और ' ईसाईयों' को मित्रं बनाओ ये आपस में एक दुसरे के मित्र हैं और जो कोई तुम में से उनको मित्र बनायेगा , वह उन्हीं में से होगा नि:संदेह अल्लाह ज़ुल्म करने वालों को मार्ग नहीं दिखता "
-
सूरा 5 , आयत-51
यहूदी और ईसाई ऊपरी तौर पर मुसलमानों से दोस्ती की बात करते थे लेकिन पीठ पीछे क़ुरैश को मदद करते और कहते मुहम्मद से लड़ो हम तुम्हारे साथ हैं उनकी इस चाल को नाकाम करने के लिए ही यह आयत उतरी जिसका उद्देश्य मुसलमानों को सावधान करना था, कि झगड़ा करना इसके प्रमाण में कुरआन की एक आयत दे रहे हैं-
ख़ुदा उन्हीं लोगों के साथ तुम को दोस्ती करने से मना करता है , जिन्होनें तुम से दीन के बारे में लड़ाई की और तुम को तुम्हारे घरों से निकाला और तुम्हारे निकालने में औरों कि मदद की, तो जो लोग ऐसों से दोस्ती करेंगे, वही ज़ालिम हैं "
-
कुरआन, पारा 28 , सूरा 60 , आयत-9

पैम्फलेट में लिखी 21 वें क्रम की आयत है :

21 - " किताब वाले ' जो अल्लाह पर 'ईमान' लाते हैं अंतिम दिन पर, उसे 'हराम' करते हैं जिसे अल्लाह और उसके ' रसूल ' ने

हराम ठहराया है, और सच्चे 'दीन' को अपना 'दीन' बनाते हैं, उनसे लड़ो यहाँ तक की वे अप्रतिष्ठित ( अपमानित ) होकर अपने हाथों से ' जीज़या' देने लगें "
इस्लाम के अनुसा तौरात, ज़ूबूर ( Old Testament ) इंजील ( New Testament ) और कुरआन मजीद अल्लाह की भेजी हुई किताबें हैं, इसलिए इन किताबों पर अलग-अलग ईमान वाले क्रमश: यहूदी, ईसाई और मुस्लमान ' किताब वाले ' या 'अहले किताब' कहलाए यहाँ इस आयत में किताब वाले से मतलब यहूदियों और ईसाईयों से है
ईश्वरीय पुस्तकें रहस्यमयी होती हैं इसलिए इस आयत को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है की इनमें यहूदियों और ईसाईयों को ज़बरदस्ती मुस्लमान बनाने के लिए लड़ाई है लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है क्योंकि इस्लाम में किसी भी प्रकार की ज़बरदस्ती की इजाज़त नहीं है
कुरआन में अल्लाह मना करता है की किसी को ज़बरदस्ती मुसलमान बनाया जाये देखिये :
पैग़म्बर ! अगर ये लोग तुम से झगड़ने लगें, तो कहना की मैं और मेरी पैरवी करने वाले तो ख़ुदा के फ़रमाँबरदार हो चुके और ' अहलेकिताब ' और अनपढ़ लोगों से कहो की क्या तुम भी ( खुदा के फ़रमाँबरदार बनते हो और ) इस्लाम लाते हो ? अगर यह लोग इस्लाम ले आयें तो बेशक हिदायत पा लें और अगर ( तुम्हारा कहा ) न मानें, तो तुम्हारा काम सिर्फ खुदा का पैगाम पहुंचा देना है
-कुरआन, पारा 3, सूरा 3, आयत-20

और अगर तुम्हारा परवरदिगार ( यानि अल्लाह ) चाहता, तो जितने लोग ज़मीन पर हैं, सब के सब ईमान ले आते, तो क्या तुम लोगों पर ज़बरदस्ती करना चाहते हो कि वे मोमिन ( यानि मुस्लमान ) हो जाएँ

-कुरआन, पारा 11, सूरा 10 , आयत-९९
इस्लाम के प्रचार-प्रसार में किसी तरह कि ज़ोर-ज़बरदस्ती न करने की इन आयतों के बावजूद इस आयत में ' किताबवालों' से लड़ने का फरमान आने के कारण वही है , जो पैम्फलेट में लिखी 8वें, 9वें व 20वें क्रम कि आयतों के लिए मैंने दिए हैं । आयत में जीज़या नाम का टैक्स ग़ैर-मुसलमानों से उन की जान-माल की रक्षा के बदले लिया जाता था इस के अलावा उन्हें कोई टैक्स नहीं देना पड़ता था । जबकि मुसलमानों के लिए भी ज़कात देना ज़रूरी था । आज तो सर्कार ने बात-बात पर टैक्स लगा रखा है । अपना ही पैसा बैंक से निकलने तक में सर्कार ने टैक्स लगा रखा है
पैम्फलेट में लिखी २२ वें क्रम की आयत :
22 - " ---------- फिर हमनें उनके बीच ' कियामत ' के दिन तक के लिए वैमनस्य और द्वेष की आग भड़का दी, और अल्लाह जल्द उन्हें बता देगा जो कुछ वे करते हैं ।"
-सूरा 5 , आयत-14
कपटपूर्ण उद्देश्य के लिये पैम्फलेट में यह आयत भी जान-बूझ कर अधूरी दी गयी है । पूरी आयत है :
और जो लोग ( अपने को ) कहते हैं की हम नसारा ( यानि इसाई ) हैं, हम ने उन से भी अहद ( यानि वचन ) लिया था । मगर उन्होंने भी उस नसीहत का, जो उन को की गयी थी, एक हिस्सा भुला दिया, फिर हमनें उनके बीच ' कियामत' के दिन तक के लिये वैमनस्य और द्वेष की आग भड़का दी, और अल्लाह जल्द उन्हें बता देगा जो कुछ वे करते रहे हैं
-कुरआन , पारा 6 , सूरा 5 , आयत-14

पूरी आयत पढने से स्पष्ट है कि वडा खिलाफ़ी, चालाकी

और फरेब के विरुद्ध यह आयत उतरी, न कि झगडा करने के लिये ।
पैम्फलेट में लिखी 23 वें क्रम की आयत है :
23 - " वे चाहते हैं कि जिस तरह से वे ' काफ़िर ' हुए हैं उसी तरह से तुम भी ' काफ़िर' हो जाओ तो उनमें से किसी को अपना साथी न बनाना जब तक वे अल्लाह कि राह में हिजरत न करें, और यदि वे फिर जावें तो उन्हें जहाँ कहीं पाओ पकड़ो और उनका ( क़त्ल ) वध करो । और उनमें से किसी को साथी और सहायक मत बनाना ।"
-सूरा 4 , आयत-89
इस आयत को इससे पहले वाली 88वीं आयत के साथ मिला कर पढ़ें, जो निम्न है :-
तो क्या वजह है की तुम मुनाफिकों के बारे में दो गिरोह ( यानि दो भाग ) हो रहे हो ? हां यह है की खुदा ने उनके करतूतों की वजह से औंधा कर दिया है , क्या तुम चाहते हो की जिस शख्स को खुदा ने गुमराह कर दिया उसको रस्ते पर ले आओ ?
-सूरा 4 , आयत- 88
स्पष्ट है की इससे आगे वाली 89वीं आयत, जो पर्चे में दी है, उन मुनाफ़िकों ( यानि कपटाचारियों ) के सन्दर्भ में हैं, जो मुसलमानों के पास आकार कहते है की हम 'ईमान' ले आये और मुस्लमान बन गये और मक्का में काफ़िरों के पास जा कर कहते कि हम अपने बाप-दादा के धर्म में ही हैं, बुतों को पूजने वाले ।
हम तो मुसलमानों के बीच भेद लेने जाते हैं, जिसे हम आप को बताते हैं । यह मुसलमानों के बीच बैठ कर उन्हें अपने बाप-दादा के धर्म ' बुत पूजा' पर वापस लौटने को भी कहते

इसलिए यह आयत उतरी कि इन कपटाचारियों को दोस्त न बनाना क्योंकि यह दोस्त हैं ही नहीं, तथा इनकी सच्चाई की परीक्षा लेने के लिये इनसे कहो कि तुम भी मेरी तरह वतन छोड़ कर हिजरत करो अगर सच्चे हो तो । यदि न करें तो समझो कि यह नुक़सान पहुँचाने वाले कपटाचारी जासूस है, जो काफ़िरों से अधिक खतनाक हैं । उस समय युद्ध का माहौल था, युद्ध के दिनों में सुरक्षा कि दृष्टी से ऐसे जासूस बहुत ही खतनाक हो सकते थे, जिनकी एक ही सजा हो सकती थी: मौत । उनकी संदिग्ध गतिविधियों के कारण ही मना किया गया है कि उन्हें न तो अपना साथी बनाओ और न ही मददगार , क्योंकि ऐसा करने पर धोखा ही धोखा है

यह आयत मुसलमानों कि आत्मरक्षा के लिये उतरी न कि झगडा कराने या घृणा फैलाने के लिये
पैम्फलेट में लिखी 24वें क्रम की आयत है :
24 - "उन ( काफ़िरों ) से लड़ो ! अल्लाह तुम्हारे हाथों उन्हें यातना देगा, और उन्हें रुसवा करेगा और उनके मुक़ाबले में तुम्हारी सहायता करेगा, और ' ईमान ' वालों के दिल ठन्डे करेगा ।"

पैम्फलेट में लिखी पहले क्रम की आयत में हम विस्तार से बता चुके हैं कि कैसे शांति का समझौता तोड़ कर हमला करने वालों के विरुद्ध सूरा 9 की यह आयतें आसमान से उतरीं । पैम्फलेट में 24वें क्रम में लिखी आयत इसी सूरा की है जिसमें समझौता तोड़ हमला करने वाले अत्याचारियों से लड़ने और उन्हें दण्डित करने का अल्लाह का आदेश है जिससे झगड़ा-फ़साद करने वालों के हौसले पस्त हों और शांति का स्थापना हो । इसे और स्पष्ट करने के लिये कुरआन मजीद की सूरा नौ की इस 14वीं आयत के पहले वाली दो आयत दे रहे हैं :और अगर अहद ( यानि समझौता ) करने के बाद अपनी अपनी कसमों को तोड़ डालें और तुम्हारे दीं में ताने करने लगें, तो उन कुफ्र के पेशवाओं से जंग करो , ( ये बे-ईमान लोग है और ) इनकी कसमों का कुछ ऐतबार नहीं है । अजब नहीं कि ( अपनी हरकतों से ) बाज़ आ जाएँ

-कुरआन , पारा 10 , सूरा 9 , आयत-12
भला तुम ऐसे लोगों से क्यों न लड़ो, जिन्होनें अपनी क़स्मों को तोड़ डाला और ( ख़ुदा के ) पैग़म्बर के निकालने का पक्का इरादा कर लिया और उन्होंने तुमसे ( किया गया अहद तोड़ना ) शुरू किया । तुम ऐसे लोगों से डरते हो, हालाँकि डरने के लायक ख़ुदा है, बशर्ते कि ईमान रखते हो ।
- कुरआन, परा 10 , सूरा 9 , आयत-13

अत: शांति कि स्थापना के उद्देश्य से उतरी सूरा 9 की इन आयतों को शांति भंग करने वाली या झगड़ा- फ़साद करने वाली कहने वाले या तो धूर्त है अथवा अज्ञानी ।

निष्कर्ष :-
40 वर्ष की उम्र में हज़रात मुहम्मद ( सल्ल० ) को अल्लाह से सत्य का सन्देश मिलने के बाद से अंतिम समय ( यानि २३ वर्षों ) तक अत्याचारी काफ़िरों ने आप ( सल्ल० ) को चैन से न बैठने नहीं दिया । इस बीच लगातार युद्ध और साजिशों का माहौल रहा ।
ऐसी परिस्थितियों में आत्मरक्षा के लिये दुश्मनों से सावधान रहना, माहौल गन्दा करने वाले मुनाफ़िकों ( यानि कपटाचारियों ) और अत्याचारियों का दमन करना या उन पर सख्ती करना या उन्हें द्नादित करना एक आवश्यकता नहीं, कर्तव्य था ।
ऐसे दुष्टों, अत्याचारियों और कपटाचारियों के लिये ऋग्वेद में परमेश्वर का आदेश है-मायाभिरिन्द्र मायिनं त्वं शुष्णमवातिर : ।
विदुष्टं तस्य मेधिरास्तेषां ॠवांस्युत्तिर ॥

-ऋग्वेद , मण्डल 1 , सूक्त 11 , मन्त्र 7
भावार्थ - बुद्धिमान मनुष्यों को इश्वर आदेश देता है कि -
साम , दाम, दण्ड , और भेद की युक्त से दुष्ट और शत्रु जनों का नाश करके विद्या और चक्रवर्ती राज्य कि यथावत् उन्नति करनी चाहिये तथा जैसे इस संसार में कपटी , छली और दुष्ट पुरुष वृद्धि को प्राप्त न हों , वैसा उपाय निरंतर करना चाहिये ।अत: पैम्फलेट में दी गयी आयतें अल्लाह के वे फ़रमान हैं , जिनसे मुस्लमान अपनी व एकेश्वरवादी सत्य धर्म इस्लाम की रक्षा कर सके वास्तव में ये आयतें व्यवाहरिक सत्य हैं । लेकिन अपने राजनितिक फायदे के लिए कुरआन मजीद की इन आयतों की ग़लत व्याख्या कर उन्हें जनता के बीच बंटवा कर कुछ स्वार्थी लोग , मुसलमानों व विभिन्न धर्मावलम्बियों के बीच क्या लड़ाई-झगडा करने व घृणा फैलाने का बीज बो नहीं रहे ? क्या यह सुनियोजित तरीके से जनता को बहकाना व वरगालाना नहीं है ?
1986
में छपे इस पर्चे को अदालत के फ़ैसले की आड़ लेकर आख़िर किस मक़सद से छपवाया और बंटवाया जा रहा है ?
जनता ऐसे लोगों से सावधान रहे, जो अपने राजनितिक फायदे के लिए इस तरह के कार्यों से देश में अशांति फैलाना चाहते हैं
ऐसे लोग क्या नहीं जानते की दूसरों से सम्मान पाने के लिये पहले ख़ुद दूसरों का सम्मान करना चाहिए ऐसे लोगों को चाहिए की वे पहले शुद्ध मन से कुरआन को अच्छी तरह पढ़ लें और इस्लाम को जान लें फिर उसके बाद ही इस्लाम पर टिप्पणी करें, अन्यथा नहीं
हो सकता है इस पर्चे को छापने व बाँटने वाले भी मेरी तरह ही अनजाने में भ्रम में हों , यदि ऐसा है, तो अब सच्चाई जानने के बाद कई भाषाओँ में छपने वाले इस पर्चे को छपवाना-बंटवाना बंद करें और अपने किए के लिए प्रायश्चित कर सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगे